अपने छोटे बच्चे को भगवान परशुराम के बारे मे ये कहानी जरूर सुनाये
भारत को अब समान नागरिक संहिता की आवश्यकता क्यों ? ( Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
विष्णु के दशावतारों में से छठे अवतार माने जाने वाले भगवान परशुराम का सामाजिक योगदान यह था कि उन्होने अन्याय, अत्याचार, अनाचार, कदाचार के विरूद्ध खडा होकर उसका त्वरित मुक़ाबला किया।परशुराम ने मदांध हैहय वंशीय राजाओं का संहार किया, जो शोषक और आततायी हो चुके थे। परशुराम के उस व्यक्तित्व का उल्लेख ही नहीं हुआ जो वस्तुतः पृथ्वी पर वैदिक संस्कृति का प्रचार – प्रसार चाहता था। वह वैदिक संस्कृति जिसे आधुनिक युग के तमाम यूरोपीय स्कॉलरों ने भी आज की समाज व्यवस्था से अधिक वैज्ञानिक और उन्नत माना है।भारत में ग्राम्य संस्कृति के जन्मदाता भी परशुराम ही थे और देश के अधिकांश ग्राम उनके ही बसाए हुए हैं। उनका लक्ष्य इस जीव सृष्टि को इसकी प्राकृतिक संपदा और सुंदरता के साथ जीवंत बनाये रखना था।उनका मानना था कि राजा को वैदिक संस्कृत का मात्र दूत होना चाहिए, न कि शासक। वह वर्ण या किसी ऐसी प्रणाली, जिसमें शासक और शासित का अस्तित्व हो, के विरुद्ध थे।वस्तुतः वह आद्य क्रांतिकारी थे।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
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भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं।(Mokama Online)
कोई भी कर्म जो जन-कल्याण की भावना से किया जाता है, वह यज्ञ स्वरूप हो जाता है और इससे धर्म की प्रतिष्ठा होती है। ‘‘धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा।’’ इस संसार में जब-जब आसुरी शक्तियों ने मानव जाति को अत्यधिक कष्ट पहुंचाया, तब-तब श्री हरि विष्णु भगवान ने अपने स्वरूप का सृजन किया। इसी कड़ी में भगवान विष्णु ने भृगुकुल में जमदग्रि ऋषि पिता तथा माता रेणुका के पुत्र के रूप में भगवान परशुराम के रूप में जन्म लिया .भगवान परशुराम विष्णु के छठवें अवतार हैं। ये चिरंजीवी होने से कल्पांत तक स्थायी हैं। इनका प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ, इसलिए उक्त तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। इनका जन्म समय सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है। इस संबंध में उल्लेख है कि : – वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। निशायाः प्रथमे यामे रामाख्यः समये हरिः॥ स्वोच्चगै षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहु संस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभुः स्वयम्॥ अर्थात्- वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छः ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान विभु स्वयं अवतीर्ण हुए। इस प्रकार भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है। नरसिंह पुराण में उनके अवतीर्ण होने के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है : – पर्शुराम इति ख्यातः सर्व लोकेषु स प्रभुः। दुष्टानां निग्रहंकर्त्तुमवतीर्णो महीतले॥ अर्थात्- सब लोकों में परशुराम के नाम से विख्यात उन प्रभु ने दुष्टों का विनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया। स्पष्ट है कि :- ‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥’ इसको चरितार्थ करते हुए तत्समय अन्याय, अत्याचार और अधर्म के प्रतीक बने राजा कार्त्तवीर्य सहस्त्रार्जुन के दुष्कर्मों से आतंकित धर्मशील प्रजा का उद्घार करने के लिए ही ईश्वर ने मनुष्य रूप में अवतार धारण किया था। ब्रम्हाजी के सात मानस पुत्रों में प्रमुख महर्षि भृगु के चार पुत्र धाता, विधाता, च्यवन और शुक्राचार्य तथा एक पुत्री लक्ष्मी हुईं। च्यवन के पुत्र मौर्य तथा मौर्य के पुत्र ऋचीक हुए। महर्षि जमदग्नि इन्हीं ऋचीक के पुत्र थे। वे अत्यंत तेजस्वी एवं धर्मपरायण ऋषि थे। इनका विवाह महाराजा प्रसेन्नजित (जिन्हें महाराज रेणु भी कहा जाता था) की पुत्री रेणुका से हुआ। पति परायणा माता रेणुका ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः वसुमान, वसुषेण, वसु, विश्वावसु तथा राम रखे गए। राम सबसे छोटे होने पर भी बाल्यकाल में ही अत्यंत तेजस्वी प्रतीत होते थे।पुराणों में उल्लेख मिलता है कि पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता और विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था, जो दैववशात् आपस में बदल गया था। इस कारण रेणुका सुत परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे, जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुलोत्पन्न होते हुए भी ब्रह्मर्षि हो गए।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। (Mokama Online)
पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र” भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-“ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।” वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। (Mokama Online)
हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं – अपनी जन्म जाति से नहीं। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति मे उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राह्णण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे ऐक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राह्णणों का वध करना भी उचित था। आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणानां च संगरे ,स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ चघ्नन्धर्मण न दुष्यति।। गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। (मनु स्मृति 8- 349-350) (जब स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। ऐसे समय धर्मतः हिंसा करने में दोष नहीं है। गुरु, ब्राह्मण, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी हो कर मारने के लिये आये तो उसे बे-खटके मार डाले।). मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।और इस मनुस्मृति के नियमानुसार परशुराम ने शुद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राहम्ण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राहम्ण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
परशुराम को एक क्रोधी और क्षत्रिय संहारक ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है (Mokama Online)
परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक :-आम तौर पर परशुराम को एक क्रोधी और क्षत्रिय संहारक ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है लेकिन ऐसा है नहीं. परशुराम ने कभी क्षत्रियों को संहार नहीं किया. किसी भी श्लोक में जहाँ भी क्षत्रिय संहार का वर्णन आया है, वहां दुष्ट क्षत्रिय शब्द का प्रयोग हुआ है | प्रश्न उठता है कि क्या व्यक्ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्या हैह्य वंश के प्रतापी महिष्मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मशास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे।उन्होंने क्षत्रिय वंश में उग आई उस खर पतवार को साफ किया जिससे क्षत्रिय वंश की साख खत्म होती जा रही थी. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हम भगवान परशुराम को क्षत्रिय संहारक के रूप में चिन्हित करते हैं. अगर वे क्षत्रिय संहारक होते तो भला एक क्षत्रियकुल वंशी के हाथ में अपना फरसा क्यों सौंप देते? जिस दिन भगवान परशुराम को योग्य क्षत्रियकुलभूषण प्राप्त हो गया उन्होंने स्वत: अपना समस्त राम के हाथ में सौंप दिया. परशुराम केवल आतातायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका रही है।(Mokama Online)
भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम :- समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम् भूमिका रही है। केरल, कच्छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि निकालने की तकनीक सुझाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के काम में भी किया है । परशुराम ने शुद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राहम्ण बनाया। यज्ञोपवीत संस्कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राहम्ण थे, उन्हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया। परशुराम के अंत्योदय के कार्य अनूठे व अनुकरणीय हैं। इन्हें रेखांकित किए जाने की जरुरत है।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का आकलन कर पाना मुमकिन नहीं है। (Mokama Online)
अनीतियों का विरोध :- परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का आकलन कर पाना मुमकिन नहीं है। जमदग्नि परशुराम का जन्म हरिशचन्द्रकालीन विश्वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ‘अष्टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस चंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्नि में मतभेद उत्पन्न हो गए। परिणाम स्वरुप जमदग्नि महिष्मति राज्य छोड़ कर चले गए।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया।(Mokama Online)
सामरिक रणनीति की पृष्ठभूमि:- इस गतिविधि से रुष्ठ होकर सहस्त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्नि और उनकी पत्नी रेणुका ने अतिथि सत्कार किया। लेकिन स्वेच्छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्वरुप जमदग्नि की हत्या कर दी। आश्रम उजाड़ा था और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित राजा बलात् छीनकर ले गया था । अनेक ब्राहम्णों ने कान्यकुब्ज के राजा गाधि राज्य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्प लिया था । इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया गया था । दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्यों की यात्राएं की जो हैह्य चंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्व दक्षता के बूते परशुराम को ज्यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। (Mokama Online)
परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान), मुजावत (हिन्दुकुश), मेरु (पामिर), श्री (सीरिया) परशुपुर (पारस, वर्तमानफारस) सुसर्तु (पंजक्षीर) उत्तर कुरु (चीनी सुतुर्किस्तान) वल्क, आर्याण (ईरान) देवलोक (षप्तसिंधु) और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तकद्ध के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि (चंदेरी) नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्मत्त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्ड बनवाए गए जिन्हें समंतपंचका रुधिर कुण्ड कहा गया है। ये कुण्ड आज भी अस्तित्व में हैं। इन्हीं कुण्डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्नीसवां युग कहा गया है।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के कार्य हाथ में लिए। (Mokama Online)
समाज सुधार व कृषि का कार्य:- इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के कार्य हाथ में लिए। केरल, कोंकण मलबार और कच्छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्य थी। इस समय कश्यप ऋषि और इन्द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्त्य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्मक काम के लिए किया। अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त्त के शुभ मुहूर्त्त माना जाता है।(Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
परशुराम जी ने समाज में सामाजिक न्याय एवं समानता की स्थापना के लिए अपना अतुलनीय योगदान दिया। (Mokama Online)
हर युग में भगवान परशुराम जी ने समाज में सामाजिक न्याय एवं समानता की स्थापना के लिए अपना अतुलनीय योगदान दिया। अष्ट चिरंजीवियों में शामिल भगवान परशुराम जी कलियुग में होने वाले भगवान के कल्कि अवतार में उन्हें वेद-वेदाङ्ग की शिक्षा प्रदान करेंगे। कोई भी पुराण भगवान परशुराम जी के पावन चरित्र के बगैर पूर्ण नहीं होता।अगर मनोबल पाने के लिए धार्मिक उपायों पर गौर करें, तो शास्त्रों में विष्णु अवतार भगवान परशुराम की उपासना श्रेष्ठ मानी गई है। क्योंकि भगवान परशुराम का चरित्र तप, संयम, शक्ति, पराक्रम, ज्ञान, संस्कार, कर्तव्य, सेवा, परोपकार का आदर्श प्रतीक है। मान्यता भी है कि भगवान परशुराम मन की गति से ही विचरण करते थे। वह चिरंजीव यानी अजर अमर भी माने जाते हैं।अक्षय तृतीया पर भगवान परशुराम की पूजा कर उनकी उपासना में विशेष मंत्र के साथ करना मानसिक संताप, परेशानियों का अंत करने के साथ ही मनोबल और इच्छा शक्ति को मजबूत बनाने वाली मानी गई है .भगवान परशुराम का जन्म रात के पहले पहर में माना गया है। इसलिए सांयकाल में उनकी पूजा का महत्व है। अक्षय तृतीया को सुबह स्नान कर शाम तक मन शांत रख मौन व्रत रखें। शाम के वक्त स्नान के बाद देवालय में भगवान परशुराम की पंचोपचार पूजा या गंध, अक्षत, फूल, नैवेद्य अर्पित कर धूप और दीप आरती करें। पूजा के बाद इस परशुराम गायत्री मंत्र से भगवान परशुराम का स्मरण करें – ॐ जमदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात। (Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
मनुष्य के लिए आत्मरक्षण और समाज-सुख-संरक्षण के निमित्त शस्त्र का आराधन भी आवश्यक है।(Mokama Online)
मनुष्य के लिए आत्मरक्षण और समाज-सुख-संरक्षण के निमित्त शस्त्र का आराधन भी आवश्यक है। शर्त यह है कि उसकी शस्त्र-सिद्धि पर शास्त्र-ज्ञान का दृढ़ अनुशासन हो। भगवान परशुराम इसी शस्त्र-शास्त्र की समन्वित शक्ति के प्रतीक हैं। सहस्रार्जुन के बाहुबल पर उनकी विजय उनकी शस्त्र-सिद्धि को प्रमाणित करती है, तो राज्य भोग के प्रति उनकी निस्पृहता उनके समुन्नत शास्त्र ज्ञान का सबल साक्ष्य देती है। ऐसे समन्वित व्यक्तित्व से ही लोक-रंजन और लोक-रक्षण संभव है।शक्तिधर परशुराम का चरित्र जहाँ शक्ति के केन्द्र सत्ताधीशों को त्यागपूर्ण आचरण की शिक्षा देता है, वहाँ वह शोषित पीड़ित क्षुब्ध जनमानस को भी उसकी शक्ति और सामर्थ्य का अहसास दिलाता है। शासकीय दमन के विरूद्ध वह क्रान्ति का शंखनाद है। वह सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की मूर्तिमंत प्रेरणा है।राष्ट्रकवि दिनकर ने भी सन् 1962 ई. में चीनी आक्रमण के समय देश को ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से ओजस्वी काव्यकृति देकर सही रास्ता चुनने की प्रेरणा दी थी। (Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते।(Mokama Online)
महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते। वे तो सम्पूर्ण मानवता की, समस्त विश्व की, समूचे राष्ट्र की विभूति होते हैं। उन्हें किसी भी सीमा में बाँधना ठीक नहीं है। महापुरूष चाहे किसी भी देश, जाति, वर्ग, धर्म आदि से संबंधित हो, वह सबके लिए समान रूप से पूज्य है, अनुकरणीय है। समस्त शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा स्रोत क्रान्तिदूत के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य हैं और सभी शक्तिधरों के लिए संयम के अनुकरणीय एवं आदरणीय है। अब वक्त आ गया है जब हम परशुराम के पराक्रम को सही अर्थों में जानें और इस महान वीर और अजेय योद्धा को वह सम्मान दें जिसके वे अधिकारी हैं.भगवान परशुराम ने समयानुकूल आचरण का जो आदर्श स्थापित किया वह युगों-युगों तक मानव मात्र को प्रेरणा देता रहेगा। जय बाबा परशुराम (मनोज कुमार जी) (Amazing story of Lord Parshuram Mokama Online News)
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