अमर शहीद प्रफुल्ल चंद चाकी !

२ मई १९०८ की सुबह  रेलवे के उस पुलिया पर दोनों और से दना दन गोलियाँ चल रही थी.जो लोग उस समय वंहा रेलवे स्टेशन पर अपने गाड़ियो का इन्तजार कर रहे थे  उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था लोग जन्हा जगह मिली वही छुप गए.लगभग २:३० घंटा गोलियों की गूंज से गुंजायमान रहा वो रेलवे स्टेशन. वो बहादुर जाबांज २:३० घंटे  तक अपनी छोटी सी रिवाल्वर से लड़ता रहा अंग्रेजों से,अपने आप को चारों और से घिरा जानकार भी उसने न तो अपने कदम पीछे खींचे और न ही आत्मसमर्पण की .अपने बहादुरी के दम पर उन्होंने लगभग ६ अंग्रेज पुलिस वाले को घायल कर दिया.वो लड़ते रहे आखिरी दम तक पर जब उन्होंने देखा की अब आखिरी गोली बची है और अंग्रेज अभी भी  चारों और से गोलियाँ चला रहे हैं तो उस तरुण ने वंही उस मिटी को नमन किया .अपने आप को भारत माँ के चरणों मैं कुर्बान करने की कसम तो वो पहले ही ले चूका था पर उसकी आँखों  से बहते आंसू ये व्यान  कर रहे थे की वो जो अपनी धरती माँ के लिए करना चाहता था वो अधूरा रह गया,पर उसका वो संकल्प की जीते जी कभी भी किसी अंग्रेज के हाथों नहीं आएगा उसने अपनी आखिरी गोली को चूमा वंहा की धरती का आलिंगन किया और उस गोली से अपने ही सर को निशाना बना के रिवाल्वर चला  दी .अंग्रेज भी हक्के बक्के रह गए , उसके बाद जो हुआ उसकी वंहा के लोगों ने कल्पना तक नहीं की थी.जब गोलियों की आवाज़ आनी बंद हुई तो लोगों ने देखा की पुलिया के उत्तर भाग मैं २०-२१ साल का एक लड़का लहूलुहान गिरा पड़ा है और कुछ अंग्रेज पुलिस उसे चारों और से घेरे हुए है . कोई कुछ समझ पता उससे पहले ही अंग्रेजों ने उस लड़के की लाश को अपने कब्जे मैं लेकर चलते बने. आज़ादी का ये दीवाना कोई और नहीं  वो प्रफुल्ल चंद चाकी थे

१० दिसम्बर १८८८ को बिहारी ग्राम जिला बोगरा (अब बांग्लादेश ) में जन्मे प्रफुल्ला चंद्र चाकी को बचपन से ही अपनी मातृभूमि से लगाव था . बचपन से ही उग्र सवभाव था  ,देश की गुलामी उन्हें हमेशा ही खलती रहती थी . वो देश को आज़ाद करने के लिए तरह तरह के विचार दिया करते थे . जब वो मात्र २० वर्ष के थे तब ही उन्होंने अंग्रेजो से लोहा लेना शुरू कर दिया था .अपने छात्र जीवन से ही चाकी ने अंग्रेजों से बगावत शुरू कर दिया . 1905 के बंगाल विभाजन और 1907 में नया कानून बनाकर अंग्रेजों द्वारा लोगों को प्रताड़ित करते देख खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद चाकी  ने हुकूमत से बदला लेने का मन बनाया। किंग्सफोर्ड ऐसे ही जज थे, जिन्होंने कई क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनायी थी। यही कारण रहा कि बंगाल से मुजफ्फरपुर किंग्सफोर्ड के तबादले के बावजूद खुदीराम बोस और चाकी ने बदला लेने का विचार नहीं त्यागा। 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्सफोर्ड की हत्या के लिए मुजफ्फरपुर में कंपनीबाग रोड स्थित क्लब के समीप बम फेंका। फोर्ड बच गये, चूंकि वे गाड़ी में थे ही नहीं, लेकिन इस घटना में दो महिलाओं की मौत हुई. जब प्रफुल्ला और खुदीराम को ये बात पता चली की किंग्स्फोर्ड बच गया और उसकी जगह गलती से दो महिलाएं मारी गई तो वो दोनों थोरे से निराश हुए वो दोनों ने अलग अलग भागने का विचार किया और भाग गए . मुजफ्फरपुर(बिहार) में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ यह पहला बम विस्फोट था खुदीराम बोस तो मुज्जफर पुर में पकरे गए और उन्हें इसी मामले में को 11 अगस्त 1908 को फांसी हुई पर प्रफुल्ला चाकी जब रेलगारी से भाग रहे थे तो समस्तीपुर में एक पुलिस वाले को उनपर शक हो गया वो उसने इसकी सूचना आगे दे दी जब इसका अहसाह परफुल्ला  हुआ तो वो मोकामा रेलवे स्टेशन पर उतर गए पर पुलिस ने पुरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था.और आज़ादी का ये वीर  सपूत अपने बलिदान से मोकामा की वो धरती को अमर बना गया ,अपने माँ –बापका एकलौता संतान होने के बाबजूद उसने देश की खातिर अपने को कुर्बान कर दिया.

मगर आज़ादी के इस दीवाने का जितना तिरस्कार हो रहा है वो बर्दास्त के काबिल नहीं है वर्षों पहले  उनके नाम से एक शहीद  द्वार तो बना पर वो आज इतना जर्जर है की वो कब गिर जाये कुछ कहा नहीं जा सकता .

किसी ने सच की कहा है

“उनकी तुर्बत पर नहीं हैं एक भी दीया, जिनके लहू से रोशन हैं चिरागे वतन ,

जगमगा रही हैं कब्रे उनकी बेचा करते थे जो शहीदों के कफ़न !!

अमर शहीद प्रफुल्ल चंद चाकी

पिछले साल २०१० को इनकी जन्म दिवस पर  भारत सरकार ने उनके सम्मान मैं डाक टिकट  भी जारी  किया था .मैं भारत सरकार,बिहार और बंगाल सरकार से आग्रह करता हूँ की इस शहीद का सम्मान हो ऐसा  कुछ  जरुर किया जाये जिससे उस देशभक्त को उचित सम्मान मिल सके ,इनकी वीरगाथा को पाठ्य पुस्तकों मैं शामिल  किया जाय ,कोई फिल्म बनवाया जाय , कोई अच्छा सा शहीद  द्वार या कोई स्मारक बनवाया जाय ताकि आने वाली पीढिया उनके बलिदान को जान सके

अंत मैं उस वीर प्रफुल्ल चंद चाकी को नमन ..

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