21 नवम्बर, 1937 को जनमे, पले-बढ़े बिहार, पटना, मोकामा के ‘रामपुर डुमरा’ गाँव में। पढ़े गाँव में, बड़हिया में, कोलकाता में बी.ए. तक। फिर पटना से बी.एल. एवं प्रयाग से साहित्य-विशारद।
नौकरी की पूर्व रेलवे के लेखा विभाग में। बहाल हुए लिपिक श्रेणी-2 पद पर 07.10.1958 को और सेवानिवृत्त हुए 30.11.1995 (अप.) को ‘कारखाना लेखा अधिकारी’ पद से।
मानदोपाधियाँ मिलीं विद्यावाचस्पति, विद्यासागर तथा भारतभाषाभूषण की।
प्रकाशित पुस्तकें : 10 काव्य, 4 कहानी, 5 समीक्षा, 2 रम्य-रचना, 3 शोध-लघुशोध, 1 भोजपुरी-विविधा तथा 1 बाल-साहित्य, कुल 26 पुस्तकें प्रकाशित।
संपादन : कुल 10 पुस्तकें संपादित। ‘शब्द-कारखाना’ तथा ‘वैश्यवसुधा’ (साहित्यिक पत्रिकाएँ) का संपादन।
पुरस्कृत-सम्मानित हुए मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, प्रेमचन्द पुरस्कार, सरहपा शिखर पुरस्कार, साहित्यसेवा पुरस्कार तथा विभिन्न नौ संस्थानों द्वारा सम्मान से। तीन दर्जन से अधिक ग्रंथों/पुस्तकों में सहलेखन। इनके ‘व्यक्ति और साहित्य’ पर सात पुस्तकें प्रकाशित। 175 पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन तथा ‘शब्द-कारखाना’ एवं ‘वैश्यवसुधा’ त्रैमासिकी का संपादन।
संपर्क : अक्षर विहार, अवन्तिका मार्ग, जमालपुर-811 214 (बिहार)
इनकी सुप्रसिद्ध रचना आप मोकमा ऑनलाइन पर भी पढ़ सकते है
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पढ़-देख रहा था अखबार कि उसे देश की चिन्ता हुई
देश में फैली-बिखरी व्यवस्था की चिंता हुई
चिंता हुई
आहत-व्याहत जन-साधारण की भी
जो भुगत रहे थे
घोटालों का व्यापार
एक अराजक संसार
निर्विकार।
उसे लगा कि देश को
क्रांति की जरूरत है
और क्रांति
तबतक नहीं होगी
जबतक वह आगे नहीं आएगा
क्रांति की बात केवल कहने से सम्भव नहीं है... बल्कि उसके लिए स्वयम को समर में उतरना पड़ता है.. वर्तमान समय पर आपकी पंक्तिया बिलकुल चरितार्थ है..